सगुण भक्ति का अपना महत्व है || आचार्य प्रशांत, संत सूरदास पर (2018)

  • 4 years ago
वीडियो जानकारी:
शब्दयोग सत्संग, 13.11.18, ग्रेटर नॉएडा, उत्तर प्रदेश, भारत

प्रसंग:
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥

अर्थ: अव्यक्त की उपासना आम देही पुरुष के लिए क्लिष्ट है। निराकार निर्गुण ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है। वह मन और वाणी का विषय नहीं है। गूँगे को मिठाई खिला दी जाए और उससे उसका स्वाद पूछा जाए तो वह कैसे बतला सकता है पर उसका आनंद तो उसका मन ही जानता है। अव्यक्त ब्रह्म का न रूप है, न रेख, न गुण है, न जाति। मन वहां स्थिर ही नहीं हो सकता। सब प्रकार से वह अगम्य है, अतः सूरदास सगुण ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीलाओं का ही गायन करना ठीक समझते हैं।
~ संत सूरदास

~ साकार की उपासना कैसे करें ?
~ मूर्त की उपासना अच्छी या अमूर्त की?
~ सगुण से निर्गुण तक कैसे जाएँ?

संगीत: मिलिंद दाते

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