Mai bagi hu mai bagi hu | Rebel Thoughts | Kavita - Ek nayi Soch, Episode-1 | Kashish-The bagi | Hidni poem
  • 4 years ago
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Mai bagi hu mai bagi hu....
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो,
इस दौर के रस्म रिवाजों से,इन तख्तों से इन ताजों से,
जो जुल्म की कोख से जनते हैं,इंसानी खून से पलते हैं,
जो नफरत की बुनियादें हैं और खूनी खेत की खादे हैं,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो

वो जिनके होंठ के जुम्बिश से,वो जिनकी आंख की लर्जिश से,
कानून बदलते रहते हैं और मुजरिम पलते रहते हैं,
उन चोरों के सरदारों से, इंसाफ के पहरेदारों से,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो

जो औरत को नचवाते हैं, बाजार की जिल्स बनवाते हैं,
फिर उसकी इस्मत के गम में तहरीके भी चलवाते हैं,
उन जालिम और बदकारों से, बाजार के उन मेमारों से,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो

जो कौम के गम में रोते हैं और कौम की दौलत ढोते हैं,
वो महलों में जो रहते हैं और बात गरीब की कहते हैं,
उन धोखेबाज लुटेरों से, सरदारों और बडेरों से,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो

मजहब के जो व्यापारी हैं,वो सबसे बड़ी बीमारी है,
वो जिनके सिवा सब काफ़िर हैं,जो दिन का हर्फ ए आखिर है,
उन झूठे और मक्कारों से, मजहब के ठेकेदारों से,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो


जहाँ सांसो पे ताजिरे हैं, जहाँ बिगड़ी हुई तकदीरे हैं,
जातों के ये गोरख धंधे हैं,जहाँ नफरत के ये फंदे हैं,
सोंचो की ऐसी पस्ती से, इन जुल्म की गंदी बस्ती से,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो,

मेरे हाथ में हक़ का झंडा है, मेरे सर पे जुल्म का फंदा है,
मैं मरने से कब डरता हूँ, मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ,
मेरे खून का सूरज जब चमकेगा, तो बच्चा बच्चा बोलेगा,
मैं बागी हूँ,मैं बागी हूँ,जो चाहे मुझपे जुल्म करो

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