स्वयं को सीमाओं के परे जानो || आचार्य प्रशांत,अष्टावक्र गीता पर (2017)

  • 4 years ago
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शब्दयोग सत्संग
१० अप्रैल २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा

अष्टावक्र गीता, अध्याय १८ से
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम् ॥८॥

आत्मा ही ब्रह्म है, और भाव अभाव कल्पित हैं। ऐसा निश्चय होते ही फिर निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे, क्या करे?

अयं सोऽहमयं नाहं इति क्षीणा विकल्पना ।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णींभूतस्य योगिनः ॥९॥

सब आत्मा ही है, ऐसा निश्चय कर के जो चुप हो गया है, उस पुरुष के लिए ये मैं हूँ, ये मैं नहीं हूँ, इत्यादि विकल्पनाएँ शांत हो जाती हैं।

प्रसंग:
आत्मा क्या है?
आत्मा को ब्रह्म क्यों कहा गया है?
परमात्मा क्या है?
स्वयं को सीमाओं के परे कैसे जानो?